आसान नहीं था उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिलानाः शमीम अहमद

आसान नहीं था उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिलानाः शमीम अहमद

ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन के बैनर तले मानवाधिकार हनन से जुड़े कई मामलों में लंबी लड़ाई लड़ चुके शमीम अहमद सबके लिए खाना मुहिम और देश में सांप्रदायिकता एकता कायम करने जैसे कई आंदोलनों का नेतृत्व कर चुके हैं। इसमें उर्दू को पश्चिम बंगाल में दूसरी सरकारी जुबान का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन करने में उन्हें काफी उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा। हालांकि लगातार आंदोलन चलाने के कारण उनको सुखद अनुभव यह हुआ कि पश्चिम बंगाल में उर्दू को दूसरी सरकारी जुबान का दर्जा मिला गया। लेकिन आंदोलन के रास्ते में आई बाधा और चुनौतियों का सामने करने का जो कड़ा अनुभव हुआ उसे याद कर वह आज भी विचिलत हो उठते हैं।

एक सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार कर्मी का आंदोलनों से गहरा संबंध होने पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि आम लोगों के हक में या समाज के किसी व्यापक हित के लिए जब बात नहीं सुनी जाती है तो सड़क पर उतरना पड़ता है। पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में उर्दू भाषियों की अच्छी खासी तादात होने के बावजूद सरकार ने उर्दू को राज्य में दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने की लोगों की मांग अनसुनी करती रही। 90 के दशक में तत्कालीन वाममोर्चा सरकार का उर्दू के प्रति सौतेला व्यवहार देखकर शमीम अहमद क्षुब्ध हो उठे और उन्होंने आंदोलन करने की ठानी। वह उर्दू के लिए करीब एक दशक से अधिक समय तक की लंबी लड़ाई को याद करते हुए कहते हैं कि उनके लिए यह सब आसान नहीं था। उर्दू के लिए उनके अंदोलन को भी राजनीतिक स्तर पर दमन करने का प्रयास किया गया। उनके पीछे वाममोर्चा सरकार की पुलिस लग गई। पुलिस ने कई बार उनके दफ्तर की घेराबंदी भी की। उनके मानवाधिकार सहकर्मियों पर पुलिस ने लाठियां भी बरसायी। शमीम अहमद को कुछ देर के लिए भूमिगत भी होना पड़ा लेकिन वह अपने अंदोलन के रास्ते से जरा भी पीछे नहीं हटे। उन्होंने अपना  आंदोलन जारी रखा। 2003 के बाद आंदोलन का रफ्तार काफी तेज हो गया। कोलकाता की सड़कों पर जगह-जगह सभाएं की गई। शमीम अहमद ने खुद कोलकाता की कुछ सड़कों और नुक्कड़ों पर जूता पालिश किया। उनके कार्यताओं ने जूता पालिश और ठेला पर उर्दू अखबार की बिक्री करने की मुहिम में पूरे उत्साह के साथ भाग लिया। शमीम अहमद कहते हैं कि शुरूआती आंदोलन में अकेले जूझने में उन्हें कुछ हताशा हुई लेकिन बाद में उन्हें उर्दू के लिए आंदोलन में काफी जन समर्थन मिला। कई छोटे-छोटे अनशन करने के बाद 2004 में जब वह कोलकाता के गांधी मूर्ति के पास धरना पर बैठे तो उसमें करीब 2000 कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। कोलकाता के बाहर के भी कुछ विशिष्ट व्यक्ति शामिल हुए। कुछ गैर मुस्लिम व्यक्तियों ने भी आंदोलन में शामिल होकर उनका उत्साह बढ़ाया। इसके बाद उनके आंदोलन को गंभीरता से लिया जाने लगा। सरकार उनकी हर गतिविधियों पर नजर रखने लगी। शमीम अहमद बताते हैं कि हिंदू जाति के एक स्वामी जी ने जब जूता पालिस करने में उनका साथ दिया तो तो उनका उत्साह और बढ़ गया। एक सिख गुरु ने भी उर्दू अखबार बिक्री करने के अभियान में शामिलल होकर उनकी हौसला अफजाई की। बाद में मुसलमानों के अतिरिक्त उर्दू के लिए आंदोलन में उन्हें हिंदू, सिख, इसाई और अन्य कुछ गैर मुस्लिमों का समर्थनव मिला। सभी का कहना था कि उर्दू को किसी धर्म या जाति विशेष से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। यह बहुत मिठी जुबान हैं और इसका साहित्य भी बहुत समृद्ध है।

शमीम अहमद ने वाममोर्चा सरकार के नकरात्मक रवैया की परवाह नहीं कर आंदोलन के दौरान नो उर्दू नो वोट का नारा दिया। यह नारा राज्य के उर्दू भाषियों पर असर किया और 2009 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वाममोर्चा की सीटें घट गई। वाममोर्चा के विरुद्ध लड़ रही ममता बनर्जी ने अच्छा मौका देखा और उर्दू के लिए शमीम अहमद के आंदोलन को न सिर्फ जायज ठहराया बल्कि उन्हें बातचीत के लिए अपने कालीघाट निवास पर आमंत्रित किया। शमीह अहमद ममता के निमंत्रण पर कालीघाट पहुंचे। ममता बनर्जी के साथ उनकी करीब एक घंटे तक उर्दू के मुद्दे पर बातचीत हुई। ममता ने शमीम अहमद को आश्वस्त किया कि तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आती है तो वह राज्य में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देगी। ममता ने 2011 के विधानसभा चुनाव में अपनी चुनावी घोषणा पत्र में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने का वादा किया।

2011 के विधानसभा चुनाव में 30 वर्षों से बंगाल पर हुकूमत करने वाले वाममोर्चा शासन का सफाया हो गया। ममता बनर्जी भारी बहुमत से जीतकर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के एक सप्ताह के अंदर ही उन्होंने उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। लेकिन कई माह गुजर जाने के बावजूद उनकी घोषणा उर्दू भाषी इलाकों में सर्वे करने तक ही सीमित रही। इस दिशा में ममता सरकार की उदासीन रवैया देखकर शमीम अहमद ने 19 फरवरी 2012 को तीसरा राज्य उर्दू कांफ्रेस के आगाज का एलान कर दिया। शमीम अहमद के फिर आंदोलन के लिए तैयार होने की खबर राइटर्स बिल्डिगं में पहुंचते ही ममता हरकत में आईं। उन्होंने कैबिनेट की बैठक बुलाई और उसके बाद राज्य के उन इलाकों में जहां 10 प्रतिशत से अधिक उर्दू भाषी आबादी है वहां उसे दूसरी सरकारी भाषा की मान्यता देने की औपचारिक घोषणा की। सरकारी सर्वे में उर्दू का दायरा मात्र कुछ नगरपालिकाओं और 13 ब्लाकों तक सीमित होते देख शमीम अहमद देश भर से तीसरा उर्दू कांफ्रेंस में भाग लेने पहुंचे अपने साथियों को लेकर दिल्ली की ओर कूच कर गए। 29 मार्च 2012 को अहले सुबह व दिल्ली के जंतर मंतर पर अपने साथियों के साथ धरने पर बैठ गए। उर्दू भाषा को उसका हक दिलाने के लिए शमीम अहमद के दिल्ली में धरना पर बैठते ही यह खबर दिल्ली के अखबों में सुर्खियां बनी। देश भर के उर्दू प्रेमी उनके समर्थन में धरना स्थल पर पहुंचे। यहां तक कि लखनऊ के स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य भी धरना स्थल पर पहुंच कर देश में उर्दू के महत्व का बखान किया। शंकराचार्य ने अपने वक्तव्य में कहा कि उर्दू को किसी धर्म या कौम विशेष की भाषा नहीं है। यह भारत की महत्वपूर्ण भाषा है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक बोली जाती है। उस दिन को याद करते हुए शमीम अहमद कहते हैं कि दिल्ली में जंतर मंतर पर अनशन पर बैठने का उनका उद्देश्य उर्दू की उपेक्षा पर पूरा देश का ध्यान आकृष्ट करना था। इसमें वह सफल भी हुए। उर्दू के लिए आंदोलन में उन्हें देश के गैर मुस्लिम लोगों का भी भरपूर समर्थन मला। आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिलते देख मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अप्रैल 2012 के प्रथम सप्ताह में विधानसभा से बिल पारित कर उर्दू को पश्चिम बंगाल में दूसरी सरकारी भाषा की मान्याता देने की कानूनी औपचारिकता पूरी की।

शमीम अहमद ने बातचीत में कहा कि उर्दू को पश्चिम बंगाल में दूसरी भाषा का दर्जा दिलाना आसान नहीं था। लेकिन उनके लगातार आंदोलन के आगे सरकार को झूकना पड़ा और विधानसभा से विधेयक पारित कर उर्दू को राज्य में दूसरी सरकारी जुबान की मान्यता देनी पड़ी। राष्ट्रीय स्तर पर भी उर्दू को इस तरह वैधानिक अधिकार दिलाने के सवाल पर शमीम अहमद कहते हैं कि यह संभव है। लेकिन उनका मानना है कि इसके लिए गर उर्दू भाषियों को साथ लेकर देश व्यापी मुहिम चलानी होगी। दिल्ली में जंतर मंतर पर जब उन्होंने अनशन किया तो देश भर के गैर हिंदी भाषियों का भी उन्हें समर्थन मिमला। यहां कि मथुरा, काशी और अयोध्या के पंडितों ने उर्दू को मान्यता दिलाने के लिए यज्ञ भी किया जिसमें लखनऊ के शंकराचार्य भी शामिल हुए। शमीम अहमद का कहना है उर्दू हिन्दुस्तानी जुबान है और देश में हिंदी भाषी भी इससे प्रेम करते हैं। इतिहास में ऐसे हिंदी भाषियों के नाम भरे पड़े हैं जिन्होंने गैर मुस्लिम होते हुए भी उर्दू के लिए काम किया। इसी तरह आज बहुत से ऐसे मुस्लिम हैं जो हिंदी के लिए काम कर रहे हैं। उनके खयाल से भाषा के रूप में हिंदी- उर्दू जुड़वा बहनें हैं। राजनीतिक कारणों से इसमें कोई विभेद नहीं होनी चाहिए और उर्दू को किसी धर्म और सिर्फ मुसलमानों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। उर्दू के हक के लिए कोई बात उठती है या आंदोलन होता है तो उसमें हिंदू मुस्लिम सभी को कंधा से कंधा मिलाकर चलना चाहिए तभी जाकर हिंदी-उर्दू  का संबंध मजबूत होगा और इससे मुल्क की सांस्कृतिक एकता को भी बल मिलेगा।