मां दंतेश्वरी हर्बल रिसर्च सेंटर ने लांच की स्टीविया की नई प्रजाति एमडीएसटी-16

मां दंतेश्वरी हर्बल रिसर्च सेंटर ने लांच की स्टीविया की नई प्रजाति एमडीएसटी-16

सीएसआईआर आईएचबीटी पालमपुर, भारत सरकार के मार्गदर्शन में तैयार हुई नई प्रजाति

कोंडगांवः मां दंतेश्वरी हर्बल रिसर्च सेंटर ने सीएसआईआर (आईएचबीटी) के वैज्ञानिकों के सहयोग से स्टीविया की नई किस्म तैयार की है। मकर संक्राति के मौके पर लांच की गई स्टीविया की नवविकसित किस्म को एमडीएसटी 16 नाम दिया गया है। मकर संक्रांति का त्यौंहार मनाने को लेकर जो जन मान्यताएं स्थापित हैं इनमें से एक यह भी है कि यह त्यौहार स्वर्ग लोक से पतित पावनी गंगा के धरती पर उतरने की खुशी में मनाया जाता है। जनकल्याण हेतु महान तपस्वी सम्राट भागीरथ के द्वारा पुण्य सलिला गंगा मैया को स्वर्ग से धरती पर ले आने  की कहानी तो हम सब ने सुनी ही है,, कठोर परिश्रम तथा साधना की ऐसी ही  एक और कहानी है देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक माने जाने वाले छत्तीसगढ़ बस्तर के कोंडागांव की, जहां पहले हर साल परंपरागत खेती में घाटा उठाने के कारण  कई बार  दो जुन की रोटी का जुगाड़ भी भारी पड़ता था, और इन्हीं कारणों से इस क्षेत्र में पलायन एक बड़ी समस्या चाहिए थी,। लेकिन, अब किसान शुगर फ्री  फसल की खेती करके देश-दुनिया में नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ को नई पहचान दे रहे हैं। हालांकि, पलायन से लेकर अब धरती से हरा सोना उगाने  तक का सफर तय करने की संघर्ष यात्रा काफी लम्बी है। लेकिन, मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म और रिसर्च सेंटर की नवाचारी सोच और कृषि वैज्ञानिकों के सहयोग ने आदिवासी किसानों का आर्थिक आजादी का सूरज दिखा दिया है। मां दंतेश्वरी हर्बल रिसर्च सेंटर कोड़ागांव के प्रगतिशील किसान, और आज देश-विदेश में कृषि वैज्ञानिक के रूप में विख्यात डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने बताया कि आदिवासी किसानों को आय सुरक्षा प्रदान करने के लिए  वह पिछले लगभग 30 वर्षों से कई नई नई फसलों पर कार्य कर रहे हैं और इसी प्रक्रिया में उन्होंने 16 साल पहले स्टीविया खेती का भी श्रीगणेश किया गया था, लेकिन‌ हमारे देश के जलवायु के अनुकूल किस्म की कमी सदैव खलती रही। एक दूसरा भरतपुर कारण था कि स्टीविया की पत्ती शक्कर से कई गुना मीठी तो होती थी लेकिन इसमें एक हल्की सी कड़वाहट पाई जाती थी, जिसके कारण इसे उपयोग करने में कई बार लोग हिचकते थे। इस स्थिति को देखते हुए  इन्होंने  सीएसआईआर की मदद से नई किस्म विकास के प्रयास शुरू किए और आ मेहनत रंग लाई। उन्होंने बताया कि इस किस्म के कि विकास में आईएचबीटी पालमपुर के वैज्ञानिक डॉक्टर संजय कुमार, डॉ प्रोबीर पाल का विशेष योगदान रहा है। इसके अलावा इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के विभाग के प्रमुख डॉ दीपक शर्मा और उनकी टीम का भी सहयोग रहा। उन्होंने बताया कि हाल ही में डॉक्टर दीपक शर्मा ने स्टीविया की नई किस्म एमडीएसटी-16 की पत्तियों का विशेष मालिक्यूलर परीक्षण के लिए भाभा एटॉमिक सेंटर भी भिजवाया है। गौरतलब है कि डॉ त्रिपाठी ने इसी विश्व मधुमेह दिवस के अवसर पर देश के करोड़ों डायबिटीज मरीजों के लिए एक नायाब उपहार पेश किया है। उन्होंने बताया कि स्टीविया को आमबोल चाल में मीठी तुलसी भी कहा जाता है। उन्होंने बताया कि सेंटर द्वारा इसे ” अंतरराष्ट्रीय मानकों के अंतर्गत जैविक पद्धति से उगाया जा रहा है। साथ ही शक्कर की जगह उपयोग हेतु, इसकी पत्तियों से पाउडर तैयार करके  अमेजॉन और www.mdhherbals.com पर आनलाइन उपलब्ध कराया है। उन्होंने बताया कि इसका प्रसंस्करण और पैकिंग भी कोंडागांव बस्तर में एम डी बाटेनिकल्स के साथ मां दंतेश्वरी हर्बल की महिला समूह के द्वारा किया जा रहा है।

डॉ. त्रिपाठी ने नई किस्म एमडीएसटी-16 किस्म की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इसकी पत्तियां शक्कर से 30 गुना मीठी होने के बावजूद पूरी तरह से कड़वाहट फ्री है। यह प्रजाति रोग प्रतिरोधक है। होने के साथ-साथ एकदम से जीरो कैलोरी वाली है। डायबिटीज के मरीज इसकी पत्तियों चाय कॉफी पेय पदार्थों के साथ खीर, हलवा सहित दूसरी मिठाईयों में उपयोग करके अपने स्वाद में मिठास घोल सकते है। एक कप चाय के लिए इस स्टीविया किस्म की बस एक चौथाई अथवा आधी पत्ती अथवा आधी चुटकी पाउडर ही पर्याप्त है। उन्होंने बताया कि  स्टीविया की पत्तियां शक्कर का जीरो कैलोरी विकल्प होने के साथ ही की  मधुमेह पीड़ित लोगों के शरीर में शक्कर की मात्रा को नियंत्रित करने वाली औषधि की तरह भी कार्य करती है। यही कारण है की पूरे विश्व में इसे इस सदी की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण फसल के रूप में देखा जा रहा है।

आखिर क्या है स्टीविया:

स्टीविया, जिसे भारत में मीठी तुलसी भी कहा जाता है। इसका बॉटनिकल नाम Stevia Rebaudiana है । यह पैराग्वे और उरुग्वे का पौधा है। भारत में इसकी खेती 20 साल पहले बेंगलुरु- पुणे के कुछ किसानों द्वारा की शुरू की गई थी। देश में इसकी पत्तियों का एक्सट्रैक्ट बनाने का कार्य विधिवत रूप से ना होने के कारण चीन से इसका एक्सट्रेक्ट एक दशक से मंगाया जाता रहा है। साथ ही, जिन प्रजातियों का देश में उत्पादन लिया जा रहा है, उनमें कड़वाहट है। इस स्थिति को देखते हुए मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के पौधा और आईएचबीटी के पौधे का क्रॉस पॉलिनेशन किया, फिर जो वैरायटी आई उसे नेचुरल बेस्ट सिलेक्शन मैथड से तहत तैयार किया। गौरतलब है कि देश में एक सर्वे के अनुसार 20 करोड़ मरीज डायबिटीज के है। 7 करोड़ के आसपास डायबिटीज के ज्ञात मरीज है जबकि, बाकी बचे 10-12 करोड़ जिनकी जांच ही नहीं हुई है। जिसके कारण भारत को डायबिटीज की वैश्विक राजधानी कहा जाता है।

ऐसे समझे इसकी खेती का अर्थशास्त्र:- इसकी खेती में अच्छी बात ये है कि इसके पौधे को बहुत कम पानी, गन्ने की अपेक्षा केवल दस प्रतिशत पानी की जरूरत पड़ती है । एक एकड़ की खेती के लिए कम से कम 20 हजार पौधे लगाए जाते हैं। प्रयोगशाला में तैयार अच्छी प्रजाति के गुणवत्ता मानकों के अनुरूप स्टीविया के अच्छे पौधों की लागत सामान्यतः 5-8 रुपए प्रति पौधे होती है। एक बार लगाकर कम से कम पांच साल तक इसकी खेती से बढ़ाया लाभ कमाया जा सकता है। इस फसल की एक अच्छी बात यह भी है कि प्रायः इसमें कोई रोग नहीं लगता है। किसान एक एकड़ में 2-3 लाख रुपए की कमाई आराम से कर सकते हैं। यूं तो स्टीविया की कई प्रजातियां प्रचलित हैं और इसके पौधे तैयार करने की भी कई तकनीकें प्रचलित रही है, इस तरह के पौधे कई बार सस्ते भी मिल जाते हैं। किंतु हमारे जानकार भुक्त भोगी किसानों के अनुभव बताते हैं कि इनकी पत्तियों को बेचने में काफी दिक्क त आती है। यह पौधे 1 से 2 साल के भीतर ही उत्पादन देना बंद कर देते हैं । जबकि एमडीएसटी-16 की पत्तियों से जो पाउडर तैयार किया जाता है वह चीनी के मुकाबले 300 गुना ज्यादा मीठी है। अप्रैल, मई और जून महीने को छोड़कर शेष नौ महीनों में इसकी बुवाई हो सकती है। एक बार फसल की बुवाई के बाद पांच साल तक इससे फसल हासिल कर सकते हैं। साल में हर दो महीने पर इससे फसल कटाई कर सकते हैं। यानी कि एक साल में कम से कम चार छह बार कटाई की जा सकती है। स्टीविया के बारे में कम जानकारी होने के कारण किसानों के बीच अभी भी ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो सकी है। जबकि इसकी खेती से लाभ ही लाभ है। इसमें नुकसान की गुंजाइश शून्य है। किसानों को इसे अपनाना चाहिए। गौरतलब है कि गन्ने की खेती में भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता ज्यादा रहती है। स्टीविया की खेती गने खेती की तुलना में केवल 10 प्रतिशत पानी में ही की जा सकती है। अर्थात 1 एकड़ गन्ने की खेती में लगने वाली पानी में 10 एकड़ स्टीविया की खेती की जा सकती है। इसीलिए भारत में जहां कई राज्यों में गन्ने की खेती समस्या बन गई है, वहां इसकी खेती प्रदेश  का 90% सिंचाई का पानी बचाएगी  और गन्ने की खेती में लगी हुई कुल भूमि में  से 90% जमीन भी अन्य फसलों की खेती के लिए खाली हो जाएगी। इन सब बिंदुओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्टीविया (एमडीएसटी-16) की खेती देश के लिए गेम चेंजर बन सकती है।