डॉ. राजाराम त्रिपाठी
एम. राजेंद्रन
क्या भारत यूएसएसआर की तर्ज पर ग्लासनोस्ट या पेरेस्त्रोइका के लिए तैयार है?
इतिहास हमें बताता है कि उद्देश्य भले ही भविष्योन्मुखी और परिवर्तनकारी था, लेकिन अंतिम परिणाम हमारे विश्व की उस भूमि में रहने वाले ‘लोगों’ के लिए अच्छा नहीं था; जब ‘सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक’ (यूएसएसआर) के पूर्व संघ ने ग्लासनोस्ट और पेरेस्त्रोइका का प्रयोग किया था, तब यही हुआ था। वर्तमान में अपनी चमक खो चुके ‘ग्लासनोस्ट’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ शब्द का इस्तेमाल मूल रूप से 1980 के दशक में पूर्व सोवियत संघ में राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव की नीतियों का वर्णन करने के लिए किया गया था।
यह बात अब छुपी नहीं है, कि भाजपा सरकार एक गंभीर नीति परीक्षण कर रही है। यह जांचने के लिए कि क्या भारत, यानी इंडिया, संविधान की मूल-अवधारणा व मूल-संरचना में बड़े बदलाव का सामना कर सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के राजनीतिक नेता उस वास्तविकता को नजरअंदाज कर रहे हैं जब वे अपने कानूनी और आर्थिक थिंक टैंक के माध्यम से हमारे संविधान की उस ‘मूल-अवधारणा’ तथा ‘मूल-संरचना’ पर पुनर्विचार विचार करने का सुझाव देते हैं, जो आज भी प्रभावी रूप से न केवल जीवित है बल्कि उत्तरदायी भी है। 2014 में जो फुसफुसाहट दबी जुबान में शुरू हुई थी, वह 2023 में एक विचार प्रक्रिया की तरह दिखने लगी है, जिसकी सभी संचार प्लेटफार्मों पर भाजपा तथा उनके अनुषंगी संस्थानों,प्रतिष्ठानो द्वारा एकजुटता और दृढ़ता से वकालत की जा रही है।
विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार, ग्लासनोस्ट ‘सरकार को अधिक खुला और लोकतांत्रिक बनाने की नीति है’ । –सीधे और एक शब्द में अगर कहें तो इसका मतलब है ‘पारदर्शिता’ । जबकि ‘पेरेस्त्रोइका’ एक शब्द है जिसका उपयोग 1980 के दशक के अंत में तत्कालीन सोवियत समाजवादी गणतंत्रों के संघ (यूएसएसआर) में बदलती राजनीतिक और सामाजिक संरचना का वर्णन करने के लिए किया जाता है – इसका सीधा सा अर्थ है ‘पुनर्गठन’ ।
तब यूएसएसआर की चरमराती अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए यह दोनों नीतियां लागू की गईं, लेकिन ‘यूएसएसआर’ विघटित हो गया। अकादमिक और ऐतिहासिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि कमजोर होते सामाजिक और आर्थिक परिवेश में किसी भी व्यवस्था की बुनियादी संरचना में कोई भी भारी बदलाव विनाश का सफल नुस्खा है। विश्व के प्रमुख धुरी राष्ट्र का पतन हो गया, और दर्जनों नए स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय हुआ जो आज भी शांति, आर्थिक वृद्धि और विकास के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इन हालातों में यह भी विचारणीय प्रश्न है कि ये राष्ट्र सही मायनों में आज कितने स्वतंत्र हैं। संविधान सिर्फ कानूनों का संकलन मात्र नहीं होता।
संविधान में परिवर्तन से पहले संविधान के समावेशी दर्शन को तथा उसमें अंतर्निहित नैतिक मूल्यों, आदर्शों को समझना जरूरी है। हर संविधान की मूल अवधारणा में निश्चित रूप से एक दर्शन समाविष्ट होता है,जैसे कि जापान की संविधान को ‘शांति संविधान’ कहा जाता है। किसी विशिष्ट मूल्य समूह से निर्देशित होकर संविधान में किसी परिवर्तन के बारे में सोचने के पूर्व हमें हमारे संविधान की बुनियाद जिन आदर्शों पर रखी गई है,उन्हें समझना होगा।
हमारे ‘मूल अधिकार’, ‘नागरिकता’, ‘अल्पसंख्यक’ एवं ‘लोकतंत्र’ से संबंधित प्रावधानों में किसी भी परिवर्तन के पूर्व हमें इनसे संबंधित संविधान सभा की बहसों और व्याख्याओं की रोशनी में देखना, समझना जरूरी होगा। हमारी शासन व्यवस्था का चाल चरित्र चेहरा हमारे संविधान के बुनियादी अवधारणाओं के अनुरूप होना चाहिए। इसलिए हमारे संविधान की ‘मूल संरचना’ से कोई छेड़छाड़ होती है तो इसका मतलब साफ है कि हम एक बड़े सुनिश्चित संकट की ओर बढ़ रहे हैं।
इंडिया यानी भारत की वर्तमान स्थिति यह है- सरकार का दावा है कि वह भारत के 140 करोड़ लोगों में से 80 करोड़ से अधिक लोगों को मुफ्त अनाज मुहैया कराती है। क्या इसका मतलब यह है कि सरकार की नीतियां उनमें से आधे को भी रोजगार प्रदान करने में विफल हो गई है और यह जनसंख्या अपने पेट भरने के लिए सरकारी भिक्षान्न पर निर्भर है? यह अस्सी करोड़ जनसंख्या बाजार से अनाज नहीं खरीद सकती, जिससे उनकी खरीददारी से आर्थिक विकास में मदद मिल सके? बेरोज़गारी 8 प्रतिशत से अधिक है, और देश के कई हिस्सों में आर्थिक विकास की संभावनाओं और सामाजिक अशांति पर विभिन्न सरकारी और विश्वसनीय अनुसंधान संस्थानों के आंकड़ों पर विरोधाभासी दावे हैं। हकीकत तो यही है कि ग़रीबी ,भूख सूचकांक, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा आदि में हम कई पायदान नीचे गिरकर विश्व की अंतिम कतार में हैं। बांग्लादेश नेपाल जैसे हमारे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी कई मायनों में हमसे आगे निकल गए।
ऐसी परिस्थितियों में, मान लीजिए कि सरकार मौजूदा जीवंत संविधान को खत्म कर देती है या एक नए प्रावधानों के साथ संविधान में बड़े पैमाने पर संशोधन करती है। जिसका उद्देश्य नए नियम निर्धारित करना है… यह दिखाएगा कि सरकार ने इतिहास से दरअसल कुछ भी नहीं सीखा है। हाल ही में बिना किसान तथा किसान संगठनों से कोई चर्चा किए देश की खेती और किसानों के कल्याण और पुनरोद्धार के नाम पर लाए गए 3-तीन नए कृषि-कानूनों की मंशा को भांपकर देश के किसानों ने एकजुटता और ऐतिहासिक आंदोलन के दम पर, नए कानूनों के विनाशक जिन्न को वापस बोतल में बंद तो कर दिया पर खतरा अभी टला नहीं है।
सरकार और उसके कानून निर्माता सोचते हैं कि वे लोगों द्वारा दिए गए 10 वर्षों के जनादेश के आधार पर ऐसा कर सकते हैं। यहां तक कि ईस्ट इंडियन कंपनी और एक हद तक ग्रेट ब्रिटेन की रानी ने भी भारत के लोगों द्वारा अपने शासकों के माध्यम से दिए गए पट्टे पर भारतीय धरती पर अपना संचालन शुरू किया।
आजादी के बाद, यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी पिछले कई मौकों पर यह गलती की, लोगों के जनादेश का सम्मान करने में गलती की, यह भूल गए कि यह देश की जनता द्वारा प्रदत्त एक ‘अस्थायी पट्टा’ था। उन सभी कांग्रेसी नेताओं ने तो इसकी भारी कीमत चुकाई ।
लेकिन उनकी गलतियों का देश और देश के लोगों को भी नुकसान उठाना पड़ा।
चुनाव जीतने के बाद पार्टियां और उसकी सरकारें यह भूल जाती हैं यह संप्रभु जनता द्वारा उन्हें देश के कल्याणकारी संचालन हेतु दिया गया 5 साल का अस्थाई पट्टा है,देश और संविधान का कोई मालिकाना हक नहीं।
हमारे मौजूदा संविधान का एक लंबा इतिहास है, जो 9 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की स्थापना तक सीमित नहीं है। भारत के लोगों ने उस समय भारत पर शासन करने वाली सरकार के दबाव में 1773 के विनियमन अधिनियम को स्वीकार किया था। यह कहना ऐतिहासिक रूप से गलत नहीं होगा कि भारतीय संविधान की उत्पत्ति 1773 के उस अधिनियम से शुरू हुई, जिसमें बहुसंख्यक आबादी को कोई अधिकार नहीं था। अब हम 2023 तक तेजी से आगे बढ़ते हैं। हमारे संविधान की बुनियादी संरचना में सुधार के बारे में सत्ता, मीडिया और अकादमिक हलकों के गलियारों में जो सुगबुगाहट हो रही है, और उसकी आवाज गांव और कस्बों तक भी पहुंचनी चाहिए। क्योंकि, यह भारत के लोगों, यानी भारत के लिए एक अच्छा शगुन नहीं है।
इंडिया यानी भारत आज वैसी ही दुर्दशा का सामना कर रहा है जैसी 1773 में देखी गई थी।
क्या हम भूल सकते हैं कि 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट , जिसे 1772 का ईस्ट इंडिया कंपनी एक्ट भी कहा जाता है, वह ग्रेट ब्रिटेन की संसद का एक अधिनियम था ? जिसका उद्देश्य भारतीय क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के प्रबंधन में आमूल-चूल परिवर्तन करना था। तकनीकी रूप से, यह कंपनी पर संसदीय नियंत्रण और “भारत में केंद्रीकृत प्रशासन” की दिशा में पहला कदम था।
ब्रिटिश सरकार ने तब संसद में, जो तर्क इस एक्ट के सफाई में दिये थे– यह ईस्ट इंडिया कंपनी के ‘अधिकारियों’ द्वारा भ्रष्टाचार और लोगों और संपत्ति का कुप्रबंधन को खत्म करने के हेतु है, ऐसे ही कुछ थे। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इससे महारानी और ग्रेट ब्रिटेन की गौरवशाली छवि धूमिल हो रही है।
क्या यह ग्रेट ब्रिटेन की संसद की वास्तविक चिंता थी या भारत अर्थात इंडिया पर कब्ज़ा करने का बहाना था?
क्या तब भारत के लोगों के लिए नियम बनाने के तर्कों और अब भारतीय संविधान में बदलाव के लिए सूचीबद्ध किए जा रहे कारणों में कोई समानता है?
क्योंकि अगर यह ब्रिटिश शासकों की हमारी और हमारे देश की कोई वास्तविक चिंता होती, तो वे अपने एजेंडे के अनुरूप व्यवस्थाओं को बदलकर अगले 174 वर्षों तक हमारे देश को नहीं लूटते। यह निश्चित रूप से इंडिया यानी भारत के लोगों के व्यापक हित में नहीं था।
इतिहास गवाह है कि बदलाव सदैव कल्याणकारी साबित नहीं होते। इसलिए भारत के पहले से ही नाजुक सामाजिक-आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव या नए बदलाव लाने की शक्ति हासिल करने के बहाने के नतीजों से भी लोगों को सावधान रहना चाहिए। क्योंकि इसके दुष्परिणाम अंततः भारत के लोगों यानी भारत को ही भुगतने पड़ेंगे।
* (डॉ राजाराम त्रिपाठी देश के सबसे ज्यादा शिक्षित,अग्रिम पंक्ति के किसान-नेता व प्रखर नीति-विश्लेषक हैं)
* (एम. राजेंद्रन देश के शीर्षस्थ अंग्रेजी समाचार पत्रों में विगत तीन दशकों से उच्च पदों पर लेखन कार्य कर चुके दिल्ली स्थित जाने-माने वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं)
यह लेख उनके निजी विचार है। पैरोकार वार्ता डॉट कम की सहमति या असहमति का इससे कोई संबंध नहीं है।